फिर कट गया राम का इकलौता शीश
Posted: Tue Oct 23, 2012 7:00 pm
by चंद्रेश कुमार छतलानी
उसका नाम राम चन्द्र था ! पेशे से वो एक ईमानदार क्लर्क था और शहर के एक विद्यालय में कार्य करता था ! तनख्वाह के नाम पर १०-१२ हजार रूपए महीना कमा लेता था !
उसके सहकर्मी जब कभी ईमानदारी का राग अलापते हुए विद्यालय में अपने कार्य का समय व्यतीत करते तो उनको खुदकी प्रशंसा का लड्डू खाते हुए देख वो मंद मुस्कान के साथ अपने काम में लगा रहता !
वहां हर व्यक्ति ईमानदार था स्वयं के अनुसार, और पीठ पीछे बाकी सभी को बेईमान साबित करता रहता ! राम चन्द्र जी अपने कार्य पर आते ईश्वर का नाम लेते, और अपने कार्य में लग जाते..... चुपचाप अपना कार्य समाप्त कर शाम को घर चले जाते... खाली समय मिलाने पर ज्ञान - ध्यान की कोई पुस्तक पढ़ते रहते....
उनके ईमानदार साथी उनके आने पर इशारों-इशारों में नारा लगाते "बोलो श्री राम चन्द्र की जय" उन सहित उनके विभाग में ११ व्यक्ति कार्यरत थे! यानी की वो एक और बाकी दस!
शाम को राम चन्द्र जी एक कंपनी में अकाउंट्स का कार्य करने जाते थे, उनका कार्य काफी अच्छा होने की वजह से उन्हें पार्ट टाईम में भी काफी अच्छी कमाई हो जाती थी और उनके घर का खर्च आराम से चल जाता था!
उनके ईमानदार साथी उनके पीछे बातें करते कि रामचंद्र जी कहीं ना कहीं रिश्वत खाते हैं जिससे वो इतना अच्छा जीवन व्यतीत कर लेते हैं ! ईर्ष्या कार्यालय में काम करने वाले लगभग हर मनुष्य का स्वभाव है ! रामचंद्र जी से उनके वरिष्ठ कर्मचारी खुश थे, जिसे उनकेसाथी कर्मचारी उन्हें -- राम जी माखन चोर, माखन लगाए हर ओर --- की संज्ञा देते थे.... लेकिन पीठ पीछे!!
दसों ईमानदार साथी धन के प्रति ईमानदार थे कार्य के प्रति नहीं ! अर्थात धन कमाने का कोई मौक़ा नहीं छोड़ना बशर्ते उसमें मेहनत ना हो ! रामचंद्र उनकी भाषा नहीं समझते थे और ना ही उन्हें आवश्यकता थी, वो अपने जीवन से संतुष्ट थे !
रामचंद्र जी के पास उस वर्ष विद्यार्थियों के पते संशोधित करने का और उनकी फीस जमा करने का कार्य आया था जिसे वो निपटा रहे थे ! उनके दसों साथी उनकी ओर ललचाई जुबान से देखते रहते क्योंकि ये दोनों ही कार्य ऐसे थे जिनसे धन कमाया जा सकता था ! पतेऔर फोन नंबर बाहर की प्राइवेट शिक्षण संस्थाओं को देकर एवं फीस में गड़बड़ घोटाले कर के काफी धन कमाया जा सकता था ! रामचंद्र जी को ऐसे पेच खोलने नहीं आते थे और ना ही वो इस बारे में सोचते थे !
तब उनके दसों साथियों में से एक के मस्तक में विचार आया कि क्यों ना रामचंद्र जी को अपने साथ मिला लिया जाए ! वो श्रीमान सपत्निक रामचंद्र जी के घर पर गए, उनके लिए कुछ मिठाई और उनके बच्चों के लिए महंगे चोकलेट लेकर ! रामचंद्र जी उस समय बाहरअकाउंट्स के काम पर गए हुए थे ! उनकी पत्नी की बनायी हुई चाय एवं मठरी की मुक्त कंठ से प्रशंसा करके उनके साथी एक महिला का विश्वास जीतने में सफल रहे ! बच्चे के तो वो पहले ही चोकलेट देखते ही उनके प्यारे चाचा हो गए थे !
बातों बातों में उन्हें पता चल गया कि रामचंद्र जी पार्ट टाईम कार्य करके रुपया कमा लेते हैं, तो उन्होंने उनकी पत्नी को विश्वास में लेकर कहा कि भाभी जी ये क्या बात हुई? क्या रामचंद्र जी अपने परिवार को समय नहीं दे पाते हैं, ऐसा भी क्या पैसा कमाने का जूनून हैजो परिवार से दूर कर दे? उनकी पत्नी ने भी उनकी हाँ में हाँ मिलाते हुए कहा कि मेरे पति तो परिवार को पूरा समय देते हैं, अगर नहीं दें तो मेरे बच्चे पढ़े कैसे? ये तो पति की जिम्मेदारी होती है!!
रामचंद्र जी की भोली पत्नी उनकी बातों में आ गयी और फिर जब रामचंद्र जी घर लौटे तो अपनी पत्नी का रौद्र सहित करूण रूप देख कर घबरा से गए! जब सब बातों का पता चला तो रामचंद्र जी समझ गए कि ये सीता हरण किस रावण और शूर्पणखा ने मिल कर कियाहै !
इधर उनके साथी जो घर पर आये थे, उन्होंने पता किया तो उन्ही के विभाग के दूसरे साथी, रामचंद्र जी जहां पार्ट टाईम काम करने जाते थे, उस कंपनी के मालिक को पहचानते थे...उन दोनों ने मिल कर एक योजना बनायी और रामचंद्र जी के पार्ट टाईम कंपनी के मालिकको कहा कि रामचंद्र जी हमारे यहाँ काफी घोटाले करते रहते हैं, आप उनसे अकाउंट्स का काम करवाते हो तो थोड़ा सावधान रहें!
मालिक थोड़े समझदार किस्म के थे, उन्होंने इस बात पर गौर नहीं किया क्योंकि उन्होंने रामचंद्र जी की निष्ठा देखी थी, लेकिन अगर कोई बात बोलो तो कहीं ना कहीं दिमाग के न्यूरोन में स्थाई स्मृति में टिक जाती है और कभी ना कभी वहां से बाहर आ कर टकराती है !रामचंद्र जी का उनकी पत्नी के मन के सीता हरण के पश्चात खराब समय आ गया था ! उनके पार्ट टाईम कंपनी में उस महीने का ट्रायल बेलेंस मिलाने में काफी समय लग रहा था तब मालिक के मन में रामचंद्र जी के सह कर्मियों की बातें गूंजी, वो पता करने रामचंद्र जीके पूर्ण कालिक कार्य क्षेत्र (विद्यालय) चले गए, उनके बारे में पता करने !
दस शीश रामचंद्र जी से ईर्ष्या करते थे! उन दसों ने रामचंद्र जी की बेईमानी की उनकी खुदकी बनायी हुई गाथा ऐसे सुनाई कि उनके मालिक कि आत्मा पुकारती ही रह गयी और मालिक के मस्तिष्क के न्यूरोन जीत गए! अगले दिन उन्होंने रामचंद्र जी को चलता कर दिया!
रामचंद्र जी परेशान से घर पहुंचे और पत्नी के साथ यह परेशानी बांटी, लेकिन पत्नी जी तो बहुत खुश थी... वो तो रामचंद्र जी के परिवार को समय देने के लिए ईश्वर से प्रार्थना कर रही थे, उसे लगा ये तो ईश्वर का प्रसाद है ! उस भोली को पता नहीं था कि घर का खर्चचलेगा कैसे?
अगले महीने १५ तारीख तक जो धन रामचंद्र जी ने दिया था वो ख़त्म हो गया और पत्नी जी परेशान.... बच्चों का खान पान बदल गया... उनके रहन सहन का स्तर कम हो गया.... रामचंद्र जी फिर भी ईश्वर का शुक्र कर रहे थे कि इसी बहाने पत्नी को समझ आ जाए किअंश कालीन कार्य की क्या आवश्यकता है !
रामचंद्र जी के सहकर्मी फिर उनके घर आये और बातों बातों में उनकी पत्नी को कहा कि जब ऑफिस से ही कमा सकते हैं तो बाहर जाने की क्या ज़रुरत है? और तरीके बता दिए!! रामचंद्र जी ने इसका पुरजोर प्रतिकार किया लेकिन पत्नी को उनकी बात नहीं वरन उनकेसहकर्मी बात समझ में आ गयी !! अब वो बार बार अपने पति को भर रही थी कि --- कमाओ --- कमाओ नहीं तो बच्चे कैसे रहेंगे, कैसे अच्छा पढेंगे, आदि आदि ! रामचंद्र जी ने तो ईमानदारी की कसम खा रखी थी, उन्होंने पत्नी को झिड़क दिया और कह दिया किबेईमानी के पकवानों से अच्छा है कि ईमानदारी की दाल खाई जाए!
जब राम चन्द्र जी बात नहीं माने तो सहकर्मीयों ने दूसरी योजना बनाई और एक सहकर्मी ने उनके बॉस की आवाज़ बना कर उन्हें फोन किया कि रामचंद्र जी कृपा करके सारे विद्यार्थियों के नाम पते और फोन नंबर की फोटो कोपी करें और मैं एक चपरासी को भेज रहा हूँउन्हें दे दें ! और एक चपरासी को उनके पास भेज दिया, रामचंद्र जी ने अपने बॉस का कहना मान कर चपरासी के हाथ वो कागज़ भेज दिए !
उनके सहकर्मियों के हाथ दस्तावेज लग गए थे, जो कि वो दूसरी शिक्षण संस्थाओं को बेच रहे थे! सहकर्मियों ने उन दस्तावेजों की दूसरी कोपी बनायी और एक कोपी अपने पास रख कर दूसरी कोपी को विद्यालय के प्रिंसिपल के पास गुमनाम नाम से मय पत्र भेज दियाकि रामचंद्र जी ये दस्तावेज बेच रहे हैं और उनके संतोषपूर्ण जीवन का कारण इस तरह के दस्तावेज बाहर बेचना है !
और फिर कट गया रामचन्द्र जी का इकलौता शीश और बच गए वो दसों शीश जिन्हें कटना चाहिए था ! >:D >:D
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Author: चंद्रेश कुमार छतलानी
उसका नाम राम चन्द्र था ! पेशे से वो एक ईमानदार क्लर्क था और शहर के एक विद्यालय में कार्य करता था ! तनख्वाह के नाम पर १०-१२ हजार रूपए महीना कमा लेता था !
उसके सहकर्मी जब कभी ईमानदारी का राग अलापते हुए विद्यालय में अपने कार्य का समय व्यतीत करते तो उनको खुदकी प्रशंसा का लड्डू खाते हुए देख वो मंद मुस्कान के साथ अपने काम में लगा रहता !
वहां हर व्यक्ति ईमानदार था स्वयं के अनुसार, और पीठ पीछे बाकी सभी को बेईमान साबित करता रहता ! राम चन्द्र जी अपने कार्य पर आते ईश्वर का नाम लेते, और अपने कार्य में लग जाते..... चुपचाप अपना कार्य समाप्त कर शाम को घर चले जाते... खाली समय मिलाने पर ज्ञान - ध्यान की कोई पुस्तक पढ़ते रहते....
उनके ईमानदार साथी उनके आने पर इशारों-इशारों में नारा लगाते "बोलो श्री राम चन्द्र की जय" उन सहित उनके विभाग में ११ व्यक्ति कार्यरत थे! यानी की वो एक और बाकी दस!
शाम को राम चन्द्र जी एक कंपनी में अकाउंट्स का कार्य करने जाते थे, उनका कार्य काफी अच्छा होने की वजह से उन्हें पार्ट टाईम में भी काफी अच्छी कमाई हो जाती थी और उनके घर का खर्च आराम से चल जाता था!
उनके ईमानदार साथी उनके पीछे बातें करते कि रामचंद्र जी कहीं ना कहीं रिश्वत खाते हैं जिससे वो इतना अच्छा जीवन व्यतीत कर लेते हैं ! ईर्ष्या कार्यालय में काम करने वाले लगभग हर मनुष्य का स्वभाव है ! रामचंद्र जी से उनके वरिष्ठ कर्मचारी खुश थे, जिसे उनकेसाथी कर्मचारी उन्हें -- राम जी माखन चोर, माखन लगाए हर ओर --- की संज्ञा देते थे.... लेकिन पीठ पीछे!!
दसों ईमानदार साथी धन के प्रति ईमानदार थे कार्य के प्रति नहीं ! अर्थात धन कमाने का कोई मौक़ा नहीं छोड़ना बशर्ते उसमें मेहनत ना हो ! रामचंद्र उनकी भाषा नहीं समझते थे और ना ही उन्हें आवश्यकता थी, वो अपने जीवन से संतुष्ट थे !
रामचंद्र जी के पास उस वर्ष विद्यार्थियों के पते संशोधित करने का और उनकी फीस जमा करने का कार्य आया था जिसे वो निपटा रहे थे ! उनके दसों साथी उनकी ओर ललचाई जुबान से देखते रहते क्योंकि ये दोनों ही कार्य ऐसे थे जिनसे धन कमाया जा सकता था ! पतेऔर फोन नंबर बाहर की प्राइवेट शिक्षण संस्थाओं को देकर एवं फीस में गड़बड़ घोटाले कर के काफी धन कमाया जा सकता था ! रामचंद्र जी को ऐसे पेच खोलने नहीं आते थे और ना ही वो इस बारे में सोचते थे !
तब उनके दसों साथियों में से एक के मस्तक में विचार आया कि क्यों ना रामचंद्र जी को अपने साथ मिला लिया जाए ! वो श्रीमान सपत्निक रामचंद्र जी के घर पर गए, उनके लिए कुछ मिठाई और उनके बच्चों के लिए महंगे चोकलेट लेकर ! रामचंद्र जी उस समय बाहरअकाउंट्स के काम पर गए हुए थे ! उनकी पत्नी की बनायी हुई चाय एवं मठरी की मुक्त कंठ से प्रशंसा करके उनके साथी एक महिला का विश्वास जीतने में सफल रहे ! बच्चे के तो वो पहले ही चोकलेट देखते ही उनके प्यारे चाचा हो गए थे !
बातों बातों में उन्हें पता चल गया कि रामचंद्र जी पार्ट टाईम कार्य करके रुपया कमा लेते हैं, तो उन्होंने उनकी पत्नी को विश्वास में लेकर कहा कि भाभी जी ये क्या बात हुई? क्या रामचंद्र जी अपने परिवार को समय नहीं दे पाते हैं, ऐसा भी क्या पैसा कमाने का जूनून हैजो परिवार से दूर कर दे? उनकी पत्नी ने भी उनकी हाँ में हाँ मिलाते हुए कहा कि मेरे पति तो परिवार को पूरा समय देते हैं, अगर नहीं दें तो मेरे बच्चे पढ़े कैसे? ये तो पति की जिम्मेदारी होती है!!
रामचंद्र जी की भोली पत्नी उनकी बातों में आ गयी और फिर जब रामचंद्र जी घर लौटे तो अपनी पत्नी का रौद्र सहित करूण रूप देख कर घबरा से गए! जब सब बातों का पता चला तो रामचंद्र जी समझ गए कि ये सीता हरण किस रावण और शूर्पणखा ने मिल कर कियाहै !
इधर उनके साथी जो घर पर आये थे, उन्होंने पता किया तो उन्ही के विभाग के दूसरे साथी, रामचंद्र जी जहां पार्ट टाईम काम करने जाते थे, उस कंपनी के मालिक को पहचानते थे...उन दोनों ने मिल कर एक योजना बनायी और रामचंद्र जी के पार्ट टाईम कंपनी के मालिकको कहा कि रामचंद्र जी हमारे यहाँ काफी घोटाले करते रहते हैं, आप उनसे अकाउंट्स का काम करवाते हो तो थोड़ा सावधान रहें!
मालिक थोड़े समझदार किस्म के थे, उन्होंने इस बात पर गौर नहीं किया क्योंकि उन्होंने रामचंद्र जी की निष्ठा देखी थी, लेकिन अगर कोई बात बोलो तो कहीं ना कहीं दिमाग के न्यूरोन में स्थाई स्मृति में टिक जाती है और कभी ना कभी वहां से बाहर आ कर टकराती है !रामचंद्र जी का उनकी पत्नी के मन के सीता हरण के पश्चात खराब समय आ गया था ! उनके पार्ट टाईम कंपनी में उस महीने का ट्रायल बेलेंस मिलाने में काफी समय लग रहा था तब मालिक के मन में रामचंद्र जी के सह कर्मियों की बातें गूंजी, वो पता करने रामचंद्र जीके पूर्ण कालिक कार्य क्षेत्र (विद्यालय) चले गए, उनके बारे में पता करने !
दस शीश रामचंद्र जी से ईर्ष्या करते थे! उन दसों ने रामचंद्र जी की बेईमानी की उनकी खुदकी बनायी हुई गाथा ऐसे सुनाई कि उनके मालिक कि आत्मा पुकारती ही रह गयी और मालिक के मस्तिष्क के न्यूरोन जीत गए! अगले दिन उन्होंने रामचंद्र जी को चलता कर दिया!
रामचंद्र जी परेशान से घर पहुंचे और पत्नी के साथ यह परेशानी बांटी, लेकिन पत्नी जी तो बहुत खुश थी... वो तो रामचंद्र जी के परिवार को समय देने के लिए ईश्वर से प्रार्थना कर रही थे, उसे लगा ये तो ईश्वर का प्रसाद है ! उस भोली को पता नहीं था कि घर का खर्चचलेगा कैसे?
अगले महीने १५ तारीख तक जो धन रामचंद्र जी ने दिया था वो ख़त्म हो गया और पत्नी जी परेशान.... बच्चों का खान पान बदल गया... उनके रहन सहन का स्तर कम हो गया.... रामचंद्र जी फिर भी ईश्वर का शुक्र कर रहे थे कि इसी बहाने पत्नी को समझ आ जाए किअंश कालीन कार्य की क्या आवश्यकता है !
रामचंद्र जी के सहकर्मी फिर उनके घर आये और बातों बातों में उनकी पत्नी को कहा कि जब ऑफिस से ही कमा सकते हैं तो बाहर जाने की क्या ज़रुरत है? और तरीके बता दिए!! रामचंद्र जी ने इसका पुरजोर प्रतिकार किया लेकिन पत्नी को उनकी बात नहीं वरन उनकेसहकर्मी बात समझ में आ गयी !! अब वो बार बार अपने पति को भर रही थी कि --- कमाओ --- कमाओ नहीं तो बच्चे कैसे रहेंगे, कैसे अच्छा पढेंगे, आदि आदि ! रामचंद्र जी ने तो ईमानदारी की कसम खा रखी थी, उन्होंने पत्नी को झिड़क दिया और कह दिया किबेईमानी के पकवानों से अच्छा है कि ईमानदारी की दाल खाई जाए!
जब राम चन्द्र जी बात नहीं माने तो सहकर्मीयों ने दूसरी योजना बनाई और एक सहकर्मी ने उनके बॉस की आवाज़ बना कर उन्हें फोन किया कि रामचंद्र जी कृपा करके सारे विद्यार्थियों के नाम पते और फोन नंबर की फोटो कोपी करें और मैं एक चपरासी को भेज रहा हूँउन्हें दे दें ! और एक चपरासी को उनके पास भेज दिया, रामचंद्र जी ने अपने बॉस का कहना मान कर चपरासी के हाथ वो कागज़ भेज दिए !
उनके सहकर्मियों के हाथ दस्तावेज लग गए थे, जो कि वो दूसरी शिक्षण संस्थाओं को बेच रहे थे! सहकर्मियों ने उन दस्तावेजों की दूसरी कोपी बनायी और एक कोपी अपने पास रख कर दूसरी कोपी को विद्यालय के प्रिंसिपल के पास गुमनाम नाम से मय पत्र भेज दियाकि रामचंद्र जी ये दस्तावेज बेच रहे हैं और उनके संतोषपूर्ण जीवन का कारण इस तरह के दस्तावेज बाहर बेचना है !
और फिर कट गया रामचन्द्र जी का इकलौता शीश और बच गए वो दसों शीश जिन्हें कटना चाहिए था ! >:D >:D
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Author: चंद्रेश कुमार छतलानी